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नई दिल्ली से पत्रकार उषा माहना


भारतीय संस्कृति में वेदों से लेकर लौकिक साहित्य तक भगवान सूर्य की महिमा वर्णित है। सूर्य प्रत्यक्ष देवता हैं। संपूर्ण जगत की आत्मा हैं। तभी तो बेद उद्घोषित करते हैं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च। संपूर्ण देवता इन्हीं के स्वरूप हैं। 





जब भगवान सूर्य धनु राशि का भ्रमण पूरा करके मकर राशि में प्रवेश करते हैं, उस काल को मकर संक्रांति कहा जाता है।मकर संक्रांति मकर राशि में सूर्य एक महीने रहते हैं। राशियों के क्रम में मकर दसवीं राशि है, दसवां स्थान आकाश एवं कर्मका है। मकर संक्रांति (इस बार 15 जनवरी) प्राकृतिक पर्व है तथापि इसे धार्मिक पर्व के रूप में मनाया जाता रहा है। पुराणों व धर्मशास्त्रों ने इसे अत्यधिक पुण्यदायी संक्रांति माना है। इसका कारण है कि यहीं से सूर्य अपने गमन पथ के दक्षिणी मार्ग का परित्याग करके उत्तर मार्ग पर चलना आरंभ करते हैं, अतएव इस पर्व को उत्तरायण भी कहा जाता है। 







मान्यता है। कि यह समय देवताओं के लिए दिन तथा असुरों के लिए रात्रि का काल है। यहीं से पृथ्वीवासियों के लिए भी प्रकाश बढ़ने लगता है। उत्तरायण में दिन बढ़ने लगता है। प्रकाश की वृद्धि सर्वथा शुभ होती है। इस पर्व का दूसरा एवं महत्वपूर्ण कारण यह है कि आज से लगभग 35 सौ वर्ष पूर्व वेदांग ज्योतिष के रचनाकार महात्मा लगध ने इस काल को युगादि अर्थात युगारंभ का प्रथम दिन कहा था। युगारंभ के साथ-साथ शिशिर ऋतु भी इसी दिन से आरंभ होती है। उत्तरायण काल के आरंभ को ही मकर संक्रांति तथा खिचड़ी पर्व कहा जाता है।

श्रीमद्भगवद्‌गीता में श्रीकृष्ण ने उत्तरायण तथा दक्षिणायन का वर्णनकरते हुए कहा है जिस मार्ग में प्रकाश स्वरूप अग्नि, दिनाधिपति देवता तथा शुक्लपक्षाधिपति देवता विद्यमान हैं, वहीं छह मास का उत्तरायण है, जहां तमस का आधिक्य है, वहीं छह महीने का दक्षिणायन काल है। व्यास जी कहते हैं, उत्तरायण काल योगियों का प्रिय है। जब मनुष्य सद्विचार, विद्या, विवेक, वैराग्य, ज्ञान आदि के चिंतन में प्रवृत्त होता है, वही उत्तरायण है। जब वह भोग सुख, काम, क्रोध में वृत्ति लगाता है, वही दक्षिणायन है।

श्रीमद्भागवत में वर्णनश्रीमद्भागवत महापुराण में वर्णन आता है कि शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म पितामह ने इच्छा मृत्यु वरदान होने के कारण कष्ट सहते हुए भी अपना शरीर नहीं छोड़ा, अपितु उत्तरायण की प्रतीक्षा करते रहे। महाभारत की कथा के अनुसार एक बार दुर्वासा ऋषि कौरव पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के आश्रम में गए। वहां उनकी पत्नी कृपी ने ऋषि की पूजा-अर्चना की। दुर्वासा के प्रसन्न होने पर उन्होंने संतान प्राप्ति का उपाय पूछा। दुर्वासा ने कहा कि यदि तुम मकर संक्रांति के दिन स्नान करके सूर्य की पूजा करोगी तो तुम्हें संतान प्राप्त होगी। कृपी ने वैसा ही किया और उन्हें अश्वत्थामा नामक पुत्र यथा समय प्राप्त हुआ।


डॉ. राघव नाथ झा
उपनिदेशक ज्योतिर्वेद विज्ञान संस्थान
पटना बिहार

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