इन मदरसों के बंद होने से जहां बड़ी संख्या मे पढ़ने वाले बच्चे मुतास्सिर होंगें वहीं बेरोज़गारी भी बढ़ेगी और हज़ारों घर फाक़ों को मजबूर होंगे।
कुछ इस उम्र के हैं के वो अब कोई दूसरा काम करने के लायक़ भी नही रहे।यक़ीनन यह उनको सरकार का बड़ा झटका है।
मगर यह अचानक नही हुआ इसकी सुनवाई काफी समय से चल रही थी—–और सरकार दलील दे रही थी के 6 से 14 वर्ष के बालक-बालिकाओं को RTE क़ानून के अंतर्गत सरकारी स्कूल्स मे निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था है।साथ ही यह मदरसे सरकार के सहयोगी धनराशि से धार्मिक शिक्षा दे रहे हैं।
इससे bjp को तीन फायदे हुए।एक,बड़ी रक़्म बचेगी,दूसरे धार्मिक शिक्षा पर पाबंदी लगी,तीसरे हिन्दू को ख़ुश होने और करने का मौक़ा मिला।
क्या मदरसों से निकले बच्चे और बच्चियां सरकारी स्कूल्स की रौनक़ बनेगें–?क्या इससे सरकार पर अतिरिक्त आर्थिक भार नही बढ़ेगा–?सरकारी स्कूल्स मे ना छात्र संख्या अनुपात मे अध्यापक हैं और ना शिक्षा का स्तर–?वहां का अध्यापक बहुउद्देश्यीय कर्मी बनकर रह गया है।
सन 2000 के बाद से सरकारी स्कूल्स योग्य छात्र-छात्राएं देने मे बांझ साबित हुआ है।सरकार की स्वयं की नीतियों के कारण बेसिक शिक्षा और शिक्षक मज़ाक़ के पात्र बन चुके हैं।
देश मे अनुछेद 21क और RTE अधिनियम 1 अप्रैल 2010 को लागू हुआ था।जिसके अनुसार 6 से 14 वर्ष के बालक-बालिकाओं को अनिवार्य शिक्षा का निःशुल्क देने का क़ानून बनाया गया था।
जिसमे सरकारी पाठ्यक्रम के अनुसार शिक्षा देनी थी।इस नियम का पालन मदरसा बोर्ड से सम्बंधित मदरसों को करना था।साथ ही इनकी सहायता का उद्देश्य उर्दू,संस्कृत,अरबी और फारसी भाषाओं को बढ़ावा देना भी था।
यहां सरकार ने उर्दू,अरबी और फारसी का अर्थ धार्मिक शिक्षा निकाल लिया।जबकि उसको संस्कृत की हालत पर भी तरस नही आया।अब आइए इन मदरसों की बदहाली पर भी नज़र डालें— लगभग 12 साल पहले देवबन्द ब्लॉक मे खंड शिक्षा अधिकारी अजय कुमार थे।प्रदेश मे सपा सरकार थी।
उस समय देवबन्द और निकटवर्ती ग्रामीण क्षेत्रों मे 40 के क़रीब मदरसे मदरसा बोर्ड के अंतर्गत थे।मगर जांच मे केवल तीन की हालत सही थी जिसमे नुनाबड़ी और मानकी के मदरसे शामिल थे।कोला बस्ती पर एक मदरसा मात्र एक कच्चे कोठे मे चल रहा था।
अधिकांश मदरसों के बोर्ड और भवन तक नही थे।सिर्फ मोहल्ला क़िले पर तीन से चार मदरसे थे।अधिकांश मदरसे कागज़ी घोड़ों पर सवार सरपट दौड़ रहे थे।साथ ही मदरसे आर्थिक और शारीरिक शोषण के केंद्र थे।
ज़रूरत ने लड़कियों को इसमे झोंक रक्खा था।उनका मदरसा संचालक आर्थिक और शारीरिक शोषण खुला कर रहे थे।
आज़ादी के बाद से अब तक मुसलमानों ने किसी भी चीज़ की क़द्र नही की।मदरसे,मस्जिदें, क़ब्रुस्तान,औक़ाफ़ की जायदाद,ज़कात,ख़ैरात, सदक़ा,इमदाद सब नोच-नोचकर खा लिए।वरना 2010 से अब तक राष्ट्रीय शिक्षा नीति को सब अपनाते और लाभ उठाते।सभी मदरसे “अनिवार्य शिक्षा” को महत्व देते।
एक समय मौलाना अरशद मदनी ने मदरसा बोर्ड और उसकी नीतियों की खुली मुख़ालफ़त की थी।आज वही दारुल उलूम नए शिक्षण सत्र से RTE के अंतर्गत नई नियुक्तियों को महत्व दे रहा है और अपने पाठ्यक्रम मे परिवर्तन कर रहा है।-
——-इस वक़्त मुसलमानों के हालात बेहद ख़राब हैं—उन्हें सबसे बड़ा दुश्मन आईना दिखाने वाला लगता है, सच बोलने वाला लगता है, रास्ता बताने वाला लगता है—-वो सही,सच्ची बात को,ईमानदार आदमी को —-ज़ात की कसौटी पर तोलते हैं—कि कहने वाला किस जाति का है।
वो अपनी संकीर्ण सोच,मौलवियों के चुंगल से बाहर नही आना चाहते—-उसको इस्लाम धर्म की मूल शिक्षाएं तक मालूम नही—हिंदुओं के बीच रहने के कारण उसको सिर्फ सत्ता और दौलत के चक्कर मे रह गया है।यह मुबारक महीना—उसके तंग,सख़्त हालात,सुकडती ज़मीन—-उसके लिए बेकार हैं।
———उसके दिल का रहम ख़त्म हो चुका है—रमज़ान से पहले वो दूध,गोश्त,सब्ज़ी-फल,कपड़े हर चीज़ की क़ीमत बढ़ा देता है—-बस इस एक माह मे वो दौलत जमा करता है—उसके दिल मे किसी ग़रीब, ज़रूरतमंद की कोई जगह नही—–दूसरी तरफ करोड़ों रुपये की ज़कात इस माह मे ठिकाने लगा देता है—कमाल और हैरत है कैसा अल्लाह का ख़ौफ दिल से निकला के “ज़कात” की मद(रक़्म) मदरसे के सफीर 50% कमीशन पर कर रहे हैं।
जो क़ौम,उम्मत,उल्मा और मौलवियों का तबक़ा “जिस्म के मेल” को खाने से परहेज़ नही कर रहा —-उसका ज़मीर,ईमान,हालात मुर्दा हो जाने हैं—एक साहब एक लाख रुपये ज़कात देते हैं।50 फीसद मदरसे को गए—50 फीसद सफीर निगल गया।सफीर ने ज़कात के पैसे से मकान,दुकान,गाड़ी,कारोबार खड़ा किया—-बताओ—हक़-हलाल रहेगा।बाक़ी 50 फीसद का भी सही इस्तेमाल नही।
।इतना लंबा लिखने का मतलब सिर्फ यह है कि अल्लाह और उसके रसूल के बनाए निज़ाम को सही रखते तो—–हमें मदरसा बोर्ड की ज़रूरत नही थी—हम इस करोड़ों की रक़्म से—कितने मदरसे,स्कूल,कॉलेज,हॉस्पिटल,ट्रेनिंग सेंटर,शादी हाल, ओडिटॉरियम बनाते —–कुछ अंदाज़ा है—
आज भी हम फ़ूड किट बांटते हैं—मगर इसी अप्रैल में नए एडमिशन होंगें—हम कभी कॉपी,किताब,ग़रीब बच्चों की फीस का इंतज़ाम नही करते—सोच बदलो–दिन और हालात बदलेंगें।
—सिकन्दर अलीब्यूरो चीफ शाह अलर्ट