अठारहवीं लोकसभा के चुनाव कई दृष्टियों से अलग और दिलचस्प साबित हो रहे हैं। इसमें सर्वाधिक दिलचस्प तथ्य तो यह है कि अब इस देश में कोई भी ऐसा दल नहीं है जो कि लोकसभा की सभी सीटों पर चुनाव लड़ रहा हो।
एक समय कश्मीर से कन्या कुमारी तक देश की लगभग सभी सीटों पर चुनाव लडऩे वाली कांग्रेस अब गठबंधन के नाम पर दूसरे दलों के लिए कई सीटें छोडऩे के लिए विवश है।
कभी एकला चलो की नीति पर विश्वास करने वाली कांग्रेस कई छोटे राजनैतिक दलों से गठबंधन कर चुकी है। इसी तरह भाजपा भी अनेक छोटे-छोटे दलों को साथ लेकर ही चुनाव लड़ रही है।
कांग्रेस की राजनीति नेहरू-गांधी परिवार की धुरी पर ही घूमती रही है। मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, श्रीमती सोनिया गांधी और अब राहुल और प्रियंका गांधी कांग्रेस का इतिहास इन नामों के बिना अधूरा है।
दुनियां में शायद ही ऐसा कोई परिवार होगा जिसके तीन-तीन सदस्य (जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी एवं राजीव गांधी) किसी लोकतांत्रिक शासन में सत्ता के सर्वोच्च स्थान पर बैठे हों।
इसी तरह दुनिया में ऐसा कोई राजनैतिक दल भी नहीं होगा, जिसके सर्वोच्च पद पर एक ही परिवार के छह व्यक्ति आसीन हुए हों।
अब प्रियंका गांधी के चुनाव प्रचार की सक्रिय राजनीति में आ जाने से नेहरू-गांधी परिवार के सातवें सदस्य (मोतीलाल नेहरू से लेकर प्रियंका गांधी तक) का भी कांग्रेसाध्यक्ष बनना तय हो गया है।
वैसे प्रियंका गांधी एवं राहुल गांधी के सक्रिय राजनीति में उतरने से भी कांग्रेस का कुछ खास भला हो नहीं पाया है।
इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि भारत में कांग्रेस का जनाधार घटता जा रहा है। प्रियंका गांधी को चुनाव प्रचार की सक्रिय राजनीति में उतारने का उद्देश्य संभवत: यही है कि इस घटते जनाधार को रोका जाये।
प्रियंका गांधी को सक्रिय होने से कांग्रेस जनों को तीन लाभ दिख रहे हैं। पहला लाभ तो यह है कि उन पर विदेशी मूल के होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता, दूसरा लाभ यह होगा कि आम जनता उनमें इंदिरा गांधी जैसी जुझारू छवि देखेगी।
तीसरा लाभ यह होगा कि देश के नवयुवक मतदाता प्रियंका के युवा नेतृत्व की ओर आकर्षित होंगे। इन तीन लाभों के माध्यम से कांग्रेस उस क्षति की पूर्ति करना चाहती है, जो पिछले चुनावों के परिणामों के बाद हुई है।
2014 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी और 2019 में राहुल गांधी के नेतृत्व की विफलता के बाद निराशा के समुद्र में गोते लगा रही कांग्रेस के नेता प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में उतारने की रणनीति बनाते समय यह भूल गए हैं कि सन् 1947 के बाद गंगा और यमुना में काफी पानी बह गया है। सन् 1947 में जवाहरलाल नेहरू का नेतृत्व इसलिए चुनौती हीन था कि उनके नाम के साथ उनका त्याग तथा स्वतंत्रता आंदोलन के लिए उनका बलिदान भी जुड़ा हुआ था।
इंदिरा गांधी को भी उनके त्याग और बलिदान का लाभ मिला था, पर प्रियंका गांधी या राहुल गांधी के खाते में कौन सा त्याग या बलिदान हैं।
लोग प्रियंका और राहुल को अनुभवहीन एवं अपरिपक्व राजनेता मानते हैं। यद्यपि राजीव गांधी जब राजनीति में आए थे तब उन्हें भी अपरिपक्व माना जाता था फिर भी उन्हें कांग्रेस को सर्वाधिक सीटें एवं प्रचण्ड बहुमत दिलाने का श्रेय मिला था।
पर इस श्रेय का कारण इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति थी। इंदिरा गांधी ने जब राजनीति में प्रवेश किया था तब उन्हें भी अपरिपक्व माना जाता था, पर वे उतनी अपरिपक्व नहीं थी जितना कि उन्हें समझा गया था। अपने पिता स्वर्गीय जवाहरलाल नेहरू से उन्होंने राजनीति के गुणदोषों को अच्छी तरह समझा था। फिर उनके पास समर्पित एवं जनाधार युक्त सलाहकारों की टीम थी।
राजीव गांधी की अपरिपक्वता इसलिए सामने आयी कि वे अपने नाना एवं मां के समान कोई चमत्कार नहीं दिखा पाये।
इसका एक मात्र कारण यही था कि वे भी जनाधार विहीन सलाहकारों से घिरे हुए थे। इसीलिए वे अपने प्रधानमंत्रित्व काल में कोई चमत्कार तो नहीं दिखा पाए बल्कि बोफोर्स घोटाले के आरोपों से घिर गए।
फिर उनके पास देश सेवा या जनसेवा के लिए त्याग और बलिदान की वह पूंजी नहीं थी, जो जवाहरलाल नेहरू एवं श्रीमती इंदिरा गांधी के पास थी। राहुल गांधी एवं प्रियंका गांधी के पास भी यह पूंजी नहीं है। उनके पास भी जनाधार विहीन सलाहकारों की फौज है।
ये जनाधार विहीन सलाहकार और साथी ही कांग्रेस को चला रहे हैं। इन साथियों एवं सलाहकारों की बानगी देखिए। दिग्विजय सिंह और अशोक गहलोत अपने-अपने प्रांतों (मध्यप्रदेश और राजस्थान) में कांग्रेस की दुर्गति करा चुके हैं।
मणिशंकर अय्यर और सैम पित्रोदा भी गांधी परिवार के करीबी माने जाते हैं पर ये भी लोकसभा चुनावों के बीच में अपनी बयानबाजी से कांग्रेस को संकट में डालने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं।
वहीं मध्यप्रदेश में राहुल गांधी के करीबी माने जाने वाले जीतू पटवारी भी अपने बयानों से चर्चा में बने रहते हैं और मध्यप्रदेश कांग्रेस के सबसे असफल अध्यक्ष साबित हो रहे हैं।
राहुल गांधी एवं प्रियंका गांधी के जनाधार विहीन साथियों और सलाहकारों की यह सूची काफी लम्बी है।
जब ये सलाहकार स्वयं चुनाव जीत नहीं सकते है, तो वे दूसरों को क्या चुनाव जितायेंगे?
ऐसी स्थिति में इन सलाहकारों एवं साथियों के भरोसे प्रियंका गांधी यदि राजनीति में आयी हैं तो यह उनकी राजनैतिक अपरिपक्वता ही कही जाएगी।
पर फिर भी इसे कांग्रेस का आखिरी दांव ही कहा जा सकता है और यहआखिर दांव कांग्रेस की हारी हुई बाजी को जीत में बदल सकता है, इसमें मुझे तो संदेह है ही क्या आपको भी है? (विनायक फीचर्स)