शाह अलर्ट

पुस्तक चर्चा
(Shah Alert)

भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से कहीं अधिक प्राचीन है।

रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के दो अद्भुत महा ग्रंथ हैं। इन महान ग्रंथों में धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक ,आध्यात्मिक और वैचारिक ज्ञान की अनमोल थाथी है। महाभारत जाने कितनी कथायें उपकथायें ढेरों पात्रों के माध्यम से न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या के गुह्यतम रहस्यों को संजोये हुये है। परंपरागत रूप से, महाभारत की रचना का श्रेय वेदव्यास को दिया जाता है। धारणा है कि महाभारत महाकाव्य से संबंधित मूल घटनाएँ संभवत: 9 वीं और 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की हैं। महाभारत की रचना के बाद से ही अनेकानेक विद्वान सतत उसकी कथाओं का विशद अध्ययन , अनुसंधान , दार्शनिक विवेचनायें करते रहे हैं। वर्तमान में अनेकानेक कथावाचक देश विदेश में पुराणों , भागवत , रामकथा , महाभारत की कथाओं के अंश सुनाकर समाज में भक्ति का वातावरण बनाते दिखते हैं। विश्वविद्यालयों में महाभारत के कथानकों की विवेचनायें कर अनेक शोधार्थी निरंतर डाक्टरेट की उपाधियां प्राप्त करते हैं। प्रदर्शन के विभिन्न माध्यमों में फिल्में , टी वी धारावाहिक, चित्रकला , साहित्य में महाभारत के कथानकों को समय समय पर विद्वजन अपनी समझ और बदलते सामाजिक परिवेश के अनुरूप अभिव्यक्त करते रहे हैं। न केवल हिन्दी में वरन विभिन्न भाषाओं के साहित्य पर महाभारत के चरित्रों और कथानकों का व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है।महाभारत कालजयी महाकाव्य है। इसके कथानकों को जितनी बार जितने तरीके से देखा जाता है, कुछ नया निकलता है। हर समय, हर समाज अपना महाभारत रचता है और उसमें अपने अर्थ भरते हुए स्वयं को खोजता है। महाभारत पर अवलंबित हिन्दी साहित्य की रचनायें देखें तो डॉ. नरेन्द्र कोहली का प्रसिद्ध महाकाव्यात्मक उपन्यास महासमर , महाभारत के पात्रों पर आधारित रचनाओ में धर्मवीर भारती का अंधा युग , आधे-अधूरे , संशय की रात, सीढिय़ों पर धूप , माधवी (नाटक), शकुंतला (राजा रवि वर्मा) , कीचकवधम , युगान्त , आदि जाने कितनी ही यादगार पुस्तकें साहित्य की धरोहर बन गयी हैं।


गांधारी की बात करें तो गान्धारी उत्तर-पश्चिमी प्राकृत भाषा थी जो गांधार में बोली जाती थी। इस भाषा को खरोष्ठी लिपि में लिखा जाता था। इस भाषा में अनेक बौद्ध ग्रन्थ उपलब्ध हैं। अन्य प्राकृत भाषाओं की तरह गान्धारी भाषा भी वैदिक संस्कृत से उत्पन्न हुई भाषा है।
नये परिवेश में समाज में स्त्रियों ने अपना स्थान बनाया , साहित्य में स्त्री विमर्श को महत्व मिला तो महाभारत की विभिन्न महिला पात्रों पर केंद्रित कृतियां सामने आईं। इसी क्रम में महाभारत की गांधारी के चरित्र पर केंद्रित साहित्य की चर्चा करें तो सुमन केशरी की पुस्तक नाटक गांधारी बोधि प्रकाशन से प्रकाशित हुई है। स्नेहलता स्वामी का उपन्यास गांधारी दिलीपराज प्रकाशन से आया है। डायमंड प्रकाशन से महासती गांधारी नाम का उपन्यास डा. विनय का भी आया है। किंतु खण्ड काव्य के रूप में मेरे पढऩे में पहली कृति डा संजीव कुमार की यह कृति ही है। भूमिका में डा संजीव कुमार ने स्वयं गांधारी के चरित्र पर सविस्तार प्रकाश डाला है। उल्लेखनीय है कि डा संजीव कुमार का भारतीय वांग्मय का अध्ययन बहुत व्यापक है। वे उसे आत्मसात कर चुके हैं। रचना कर्म के लिये वे वर्णित चरित्र में परकाया प्रवेश की कला जानते हैं। वे अपनी लेखनी की ताकत से आलोच्य चरित्र को अपने युग में उठा लाते हैं। मिथक के वर्तमान में इस आरोपण से डा. संजीव की रचनायें बहुत प्रभावी और समय सापेक्ष बन जाती हैं। मुझे डा. संजीव की अधिकांश पुस्तकों को गहराई से पढ़कर किताब की चर्चा करने का सुअवसर मिला।

मैं कह सकता हूं कि उनकी काव्यात्मक अभिव्यक्ति क्षमता विलक्षण है। वे अपने कल्पना लोक में वह रिक्तता भरना बखूबी जानते हैं जो महाकाव्य में जहाँ से मूल कथानक लिया जाता है , कहानी की जटिलता और चरित्रों की भीड़ भाड़ में अकथ्य रह गया होता है। डा. संजीव कोणार्क जाते हैं तो वे मांदिर परिसर की मूर्तियों में जान भरकर उनको शब्द देने की क्षमता रखते हैं। मुझे अच्छा लगा कि इस कृति में उन्होंने अपने पाठकों के लिये गांधारी को जिया है।
गांधारी पूरे महाभारत में प्रमुखता से मौजूद है किन्तु वह मौन है। गांधारी का जन्म गांधार के राजा सुधर्मा और सुबाला के घर हुआ था। राजनीति में रिश्तों की कहानी बहुत पुरानी है। भीष्म द्वारा गांधारी को कुरु साम्राज्य की बड़ी पुत्रवधू के रूप में चुना जाना भी राजनैतिक संधि और प्रभाव का परिणाम था। शायद समझौते के रूप में स्वीकार किया गया यह किंचित बेमेल विवाह ही महाभारत के युद्ध का बीजारोपण था।

गांधारी के भाई शकुनि के प्रतिशोध का कारण था। महाकाव्य में गांधारी का चरित्र उन ऊंचाईयों तक वर्णित है , जहां अपने पति के नेत्र न होने से वे भी जीवन पर्यन्त आंखो पर पट्टी बांधकर अंधत्व का जीवन यापन करती हैं। गांधारी अनन्य शिव भक्त थीं। दैवीय वरदान से वे महाभारत के खलनायक सौ पुत्रों कौरवों तथा एक बेटी दुशाला की माँ बनी। कुरुक्षेत्र युद्ध और कौरवों के समूल अंत के बाद , गांधारी ने कृष्ण को श्राप दिया, जिसके प्रभाव से यदु वंश का विनाश हुआ।
अब आलोच्य कृति में गांधारी के मनोभावों को डा. संजीव कुमार ने किस प्रकार निबाहा है , वह पढिय़े और मेरा भरोसा है कि ये अंश पढ़कर आप पुस्तक पढऩे के लिये अपनी जिज्ञासा को बिना किताब बुलवाये रोक न सकेंगे।

कुल जमा 72 कविताओ में गांधारी के मनोभावों को सारे महाभारत से समेट कर सक्षम अभिव्यक्ति दे पाने में डा. संजीव सफल हुये हैं। कवितायें कर्ता कारक के रूप में लिखी गईं हैं। मेरे पिता सुबल एवं माता सुधर्मा थीं , बताया गांधारी ने … गांधार छोड़ते समय मैने याद किया आराध्य शिव शंकर को , और बैठ गई डोली में। निर्भीक और निडर। मेरी सखी सुनंदा और भ्राता शकुनि साथ थे , जो रहेंगे मेरे साथ ही ससुराल में। ……
एक अपहृत राजकुमारी निरीह … जिसे एक जन्मांध की पत्नी बनकर जीना था ….
… और शामिल कर लिया आँखों की पट्टी को अपनी वेशभूषा में ….
… शायद पट्टी बांधी थी तुमने अपने लिये …
… न संभाल सकीं तुम बच्चे … और माँ के नेत्रों से न देख पाये बच्चे दुनियां बन गये सारे जिद्दी और उद्दंड …
… धृतराष्ट्र ने तुम्हें छोड़ दासी से बना लिये संबंध , परिणाम था युयुत्सु …
…. खुली तो फिर भी रहेंगी मेरे मन की आँखें …
इसी तरह की सशक्त अभिव्यक्ति कौशल के दर्शन होते हैं पूरी किताब में। गांधारी के चरित्र को रेखांकित करती इस काव्य कृति के लिये संजीव जी बधाई के सुपात्र हैं।

खरीदिये , पढिय़े और इस वैचारिक कृति से परखिये स्त्री मनोभावों की ताकत को जो आजीवन अंधत्व का स्वेच्छा से चयन करने का सामथ्र्य रखती है तो समूचे यदुवंश को श्रापित कर नष्ट करने पर विवश हो सकती है।

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