लहू बोलता भी है
भारतीय राष्ट्र राज्य के निर्माण में हिंदुओं के साथ मुसलमानों का भी योगदान रहा है। मुगलों के आने के बाद भारतीय राष्ट्र का वह स्वरूप नहीं रहा जो प्राचीन काल में था।
मुल्क की संस्कृति एवं सभ्यता के स्वरूप में भी बदलाव आए और एक साझी संस्कृति का निर्माण हुआ। जंगे-आजादी में केवल हिंदुओं ने ही नहीं बल्कि मुसलमानों ने भी अपनी कुर्बानियां दीं। लेकिन आज कुछ दक्षिण पंथी ताकतें विशेषकर टीवी चैनल मुसलमानों को गद्दार और देशद्रोही सिद्ध करने पर तुले हैं। शायद लोगों ने आजादी के इतिहास को ठीक से नहीं पढ़ा है। कुछ दिक्कतें इतिहासकारों की भी रहीं। उन्होंने मुसलमानों के योगदान को उस तरह रेखांकित नहीं किया जिस तरह हिंदू नायकों के योगदान को रेखांकित किया गया।
दरअसल, इतिहास लेखन में पूरी तरह न्याय न होने के कारण भी मुसलमानों के योगदान को ठीक से जाना नहीं गया। सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी और कृष्ण कल्कि ने लहू बोलता है नाम से ऐसी ही किताब लिखी है, जिसमें जंगे आजादी के मुस्लिम किरदारों की शौर्य गाथा छिपी है। आजादी की लड़ाई में कितने मुस्लिम फांसी के फंदे पर लटके, कितने शहीद हुए, कितनों को काले पानी की सजा हुई, कितने गिरफ्तार हुए इसका लेखा-जोखा संभवतः पहली बार पेश किया गया है। पुस्तक में उन्होंने इन मुस्लिम किरदारों के नाम भी दिए हैं। आज हम आजादी की लड़ाई में भाग लेने वाले चंद नेताओं को ही जानते हैं लेकिन कादरी साहब ने इन लोगों की एक लंबी सूची पेश की है और बंटवारे की कथा को सही परिप्रेक्ष्य में रखा है। क्योंकि इस विभाजन की तोहमत अक्सर इकबाल और जिन्ना के माथे मढ़कर लोग छुट्टी पा लेतें हैं।
पुस्तक में मुस्लिम लीग के निर्माण की ऐतिहासिक परिस्थियों का भी जिक्र किया गया है और कांग्रेस के भीतर मुसलमानों को लेकर की गई अंदरूनी सियासत का भी वर्णन है। 1857 की लड़ाई हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर लड़ी थी और उस जंग में एक लाख मुस्लिम मारे गए थे। कानपुर से फर्रुखाबाद के बीच सड़क के किनारे जितने पेड़ थे उन पर मौलानाओं को फांसी पर लटका दिया गया था। इसी तरह दिल्ली के चांदनी चौक से लेकर खैबर तक जितने पेड़ थे उन पर भी उलेमाओं को फांसी पर लटकाया गया था। 14 हजार उलेमाओं को सजा-ए-मौत दी गई थी। जामा मस्जिद से लाल किले के बीच मैदान में उलेमाओं को नंगा कर जिंदा जलाया गया। लाहौर की शाही मस्जिद में हर दिन 80 मौलवियों को फांसी पर लटका कर उनकी लाशें रावी नदी में फेंक दी जाती थीं। कादरी साहब ने लिखा है कि फांसी पर चढ़ने वाले और काला पानी की सजा पाने वालों में 75 प्रतिशत मुसलमान थे। इतना ही नहीं, ये मुसलमान हैदर अली और टीपू सुल्तान के समय से ही अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे। कई मुसलमानों को सरेआम 500 सौ से लेकर 900 कोड़े तक मारे गए। अवाम में यह झूठ फैलाया गया कि इकबाल द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के पैरोकार थे जबकि उन्होंने ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ गीत लिखा था। जिस दिन आजादी मिली उस रात पार्लियामेंट में मौजूद लोगों ने यह तराना कोरस में गाया था।